कैसे शुरू हुई महाकाल मंदिर मे भस्म आरती की शुरुआत
उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और इसे विशेष रूप से "महाकाल" नाम से जाना जाता है। महाकालेश्वर का अर्थ है "काल के भी काल," यानी मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले शिव। इस मंदिर की सबसे अनोखी और प्रमुख परंपरा है भस्म आरती। यह आरती हर दिन ब्रह्म मुहूर्त में आयोजित की जाती है, जिसमें भगवान शिव का श्रृंगार चिता की भस्म से किया जाता है। भस्म आरती का यह स्वरूप शिव के "संहारक" रूप को समर्पित है और यह उनकी मृत्यु पर विजय की शक्ति को दर्शाता है।
भस्म आरती कब और कैसे शुरू हुई?
भस्म आरती की परंपरा का उल्लेख प्राचीन काल से मिलता है। यह कहा जाता है कि महाकाल मंदिर में भस्म आरती की शुरुआत त्रेतायुग में हुई थी, जब उज्जैन को अवंतिका नगरी के नाम से जाना जाता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव ने अपने भक्तों की रक्षा के लिए राक्षस दूषण का वध किया और उस समय से चिता की भस्म को अपनी भक्ति का प्रतीक माना। इस परंपरा को कालांतर में राजा विक्रमादित्य के शासनकाल में और अधिक सुव्यवस्थित किया गया।
महाकाल मंदिर में यह आरती आज भी उसी विधि से होती है, जैसा कि प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है। इस आरती में भगवान शिव का श्रृंगार पहले चिता की भस्म से किया जाता है और फिर फूलों और चंदन से। यह आरती शिवभक्तों के लिए जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने का प्रतीक है।
यहां पर कई सारे लोग ऐसे होते हैं, जो मंदिर में रजिस्ट्रेशन कराते हैं और मृत्यु के बाद उनकी भस्म से भगवान शिव का श्रृंगार किया जा सके। लेकिन अब यहां पर गाय के उपले से भी भस्म आरती होती है।
महाकाल मंदिर की भस्म आरती एक अद्वितीय परंपरा है, जो भगवान शिव की अजेयता और उनकी संहारक शक्ति को समर्पित है। इस आरती का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है और यह आज भी उतनी ही भक्ति और श्रद्धा के साथ आयोजित की जाती है। भस्म आरती के दौरान शिवभक्त एक अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा का अनुभव करते हैं, जो उन्हें जीवन और मृत्यु के चक्र से परे ले जाती है।